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इतिहास के गौरव-बोध की गाथा है पूर्णाहुति, वर्तमान के लिए एक सीख है पूर्णाहुति
प्रतीक्षा की घड़ी चाहे बेशक छोटी हो लेकिन बहुत लम्बी लगती है। ऐसा ही कुछ समय बीता गत दिनों का जब पूर्णाहुति किताब के रूप में आई। इसे आर्डर करने से लेकर घर पहुंचने तक के इंतजार का समय मानो थम सा गया था। अंततः तीन दिन पहले घर पहुंच गई पुस्तक तो अब बारी थी यह निर्धारित करने का कि कौन पहले पढ़ें। और फिर जब पुस्तक मेरे हाथ लगी दो दिन पहले तो खत्म होने के बाद ही छूटी।पहली बधाई तो लेखक सर्वेश तिवारी श्रीमुख को इस शानदार कथानक को चुनने के लिए, तदुपरांत बधाई के पात्र हैं प्रकाशक, पुस्तक के शानदार आवरण सज्जा के लिए, मानो पुस्तक का आवरण ही इसके अंदर की सामग्री का बयान कर रहा हो। अब बात करें कहानी की तो वैदिक मंत्रोच्चार से शुरूआत ने ही सर्वेश के तेवर को बता दिया कि यह धर्मनिष्ठ कलम का सिपाही फिर एक युद्ध पर निकल पड़ा है। शादी के मंगल बेला से शुरूआत हुई कहानी दो सनातनी अजनबीयों के बीच उस पवित्र बंधन के संकल्प मात्र से एक दूसरे के प्रति प्रस्फुटित होने वाले सहज समर्पण और प्रेम की दास्तां के रूप में अभी पहला कदम आगे बढ़ाती ही है कि धर्म के प्रति प्रेम के उत्सर्ग की पहली परीक्षा सामने आ खड़ी होती है।कहानी एक सधे हुए क्रम में आगे बढ़ती है और कर्तव्य एवं वीरता के लिए अपनी ख्याति के अनुरूप मशहूर उस महान राजपूताना वीरों के अद्भुत पराक्रम और क्षत्राणी विरांगनाओं के परम उत्सर्ग के लोमहर्षक बयानी के साथ मुग़लिया दर्प को ख़ाक में मिलाती नजर आती है। कहानी मे जहां भी लगा कि अब यह प्रसंग लंबा खिंच रहा है तब तक वहां पर ऐसा मोड़ आ जाता है कि आप बरबस ही पुनः आगे उत्सुकतावश पढ़ने लगते हैं।अकबर द्वारा तीन माह तक चितौड़ के बाहर की प्रतिक्षा सिर्फ उसे ही नहीं अपितु पाठकों के लिए भी थकान वाली लगने लगी थी कि भीलों द्वारा किए गए छद्म आक्रमणों ने एक नया जोश भर दिया। लेखक द्वारा उस आक्रमण की बयानी में कुछ इस तरह से पुट डाले गए कि कहीं कहीं आप बरबस ही खिलखिला उठते हैं। जिल्लेइलाही की हवाइयां उड़ने की बयानी में आपको एक बार फिर सर्वेश विशुद्ध गंवईं अंदाज वाले दिखते हैं जहां आज भी मारने से ज्यादा आनंद मारने के तरीकों में होता है।कहानी के कुछ हिस्से तो इतने मार्मिक और विदीर्ण करने वाले हैं कि उस हिस्से को पढ़ने में मन थर्रा उठा तो लिखने में लेखक किस मन: स्थिति से गुजरा होगा यह स्वत: अंदाजा लगाया जा सकता हैविशेष कर जौहर के समय का कारूणिक दृश्य, चार वर्षिय बालक का हँसते हुए अग्नि स्नान को जाना, एक पिता की बेवशी , धर्म और शासक के प्रति निष्ठा परस्पर विरोधी खेमे के योद्धाओं के साथ भरपूर न्याय करते दिखें है सर्वेश। एक भील बालक और एक ब्राह्मण पुजारी के बीच के संवाद का दृश्य बहुत कुछ सीखाता है तो इन दोनों का अपने लोगों के प्रति श्रद्धा का अनुष्ठान सामाजिक समन्वयता का वह खाका खिंचता है जिसके विरुद्ध आज का हर तथाकथित बौद्धिक व्यक्ति खड़ा है।प्रेम के प्रति ऐसी श्रद्धा ऐसा समर्पण की न होकर भी सबकुछ हो जाना उस देवी से तो कोई सीखें जिसे अधिकार स्वरूप मिलता है तो होने वाले पति का कटा शिश और उस शिश के साथ सती होने सौभाग्य।कुल मिलाकर लेखक ने इस कहानी के माध्यम से इतिहास के उस गौरव बोध से साक्षात्कार करवाया है जो हमारी पीढ़ी भूलती जा रही है। हमें अपने कर्तव्य और दायित्वों के प्रति आगाह करने में लेखक अपनी भूमिका पूर्ण निष्ठा के साथ निभाते हुए नजर आ रहे हैं अब फैसला हमारे और आपके हाथों में है।।।।।।एक बार पुनः इस शानदार पुस्तक के लिए लेखक को अनंत शुभकामनाएं ।।।
क**ा
पूर्णाहुति
पूर्णाहुति======हाँ! पठन तो रुचि का विषय है, लेकिन 'कितना पढ़ा जा सकता है?'......निश्चित ही यह अभिरुचि का विषय है। अभिरुचि का संबंध निपुणता से है। अभिरुचि के अभाव में रुचिकर कार्य भी पूरी तरह से सम्पादित नहीं हो पाते। अतीत के प्रति हृदय में गर्व का गहरा भाव होने के बाद भी, इतिहास के पठन में मेरी अभिरुचि कभी समृद्ध नहीं रही।जब भाई सर्वेश ने 'पूर्णाहुति' का कवर पेज मुझे व्हाट्सएप किया तो देखते ही पहले तो मन में सहजभाव से मंगलकामना फूटी लेकिन दूसरे क्षण पुस्तक की अंतर्वस्तु को इतिहास का भाग जानकर एक प्रश्न स्वयं से किया कि क्या इतिहास संबंधित अन्य पुस्तकों की तरह, यह पुस्तक भी अधूरी ही पढ़ी जाएगी? एक कॉन्फ्रेंस में था और बैठे-बैठे कुछ समय तक बस यही सोचता रहा। फ़िर अपने ही मन को ढांढस बंधाते हुए कहा- 'शांत... अस्थिर मन शांत! पहले पुस्तक को आने दो और पुस्तक को ही यह निर्णय लेने दो कि उसे पूरा पढ़ा जाए या आधा।'लेकिन भाई साहब! पृष्ठभूमि भले ही इतिहास की हो, लिखा तो उपन्यास ही गया है न..... तो निश्चित ही इसके संवादों में पहाड़ सा ठहराव भी होगा और झरने की गतिशीलता भी होगी। भावनाओं का यही उतार-चढ़ाव पहली ही अध्याय के दूसरे ही पृष्ठ में कल्याण और राजकुमारी कृष्णा कुँवर के संवाद में पढ़ने मिल जाता है। पाठक यही तो पढ़ना चाहता है और वही पढ़ने को मिला भी।'पूर्णाहुति' अकबर द्वारा सन 1567 में चित्तौड़ की किले पर किए आक्रमण को केंद्र में रखकर वीर योद्धा कल्याण (कल्लाजी) और राजकुमारी कृष्णा कुँवर की प्रेम के ऊपर लिखी एक कहानी है। युद्ध की घोषणा सुनते ही कल्लाजी द्वारा अपने स्वयं की बारात से ही युद्ध के लिए वापस मुड़ जाना और कल्लाजी जी की वीरगति का समाचार सुनकर अपने अविवाहित पति के लिए कृष्णा का सती हो जाना, दोनों ही क्षात्र धर्म के अनुरूप त्याग की अद्भुत प्रेम कहानी है।लेखक ने युद्ध और जौहर के दृश्यों को अपनी लेखनी से ऐसा उकेरा है कि पढ़ते समय दोनों घटनाएं आँखों के समझ ही घटित होती हुईं प्रतीत होती हैं...... एकदम जीवंत चित्रण। जहाँ युध्द को पढ़ते समय सभ्यता को अजर और क्रूरता को तिरोहित होते देखना गर्व से सीना चौड़ा कर देता है, हर एक क्षत्रिय का बलिदान मन में दुःख नहीं बल्कि आत्माभिमान भर जाता है, वहीं जौहर को पढ़ते समय हृदय काँप उठता है।जौहर वाले भाग में एक दृश्य है, जिसमें फुलकुंवर और फतेहसिंह के चार वर्षीय पुत्र अपने पिता फतेहसिंह से उत्साहित होकर कहता है कि- "बाबा सा! हम जौहर करने जा रहे हैं। सब अग्नि में समा जाएँगे। मैं, माँ, दादी, सब।" इस भाग को पढ़ते समय मेरा बेटा मेरे सामने बैठा था। बस मेरी एक दृष्टि उसके ऊपर गई और आँखें सजल हो उठीं। लेखक ने जौहर वाले भाग में राष्ट्र और धर्म के प्रति न्यौछावर होने वालीं उन क्षत्राणियों के ऊपर अपनी समूची श्रद्धा उड़ेंल दी है।अभी पितृपक्ष चल रहा है। यह सम्पूर्ण पखवाड़ा अपने पूर्वजों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा सुमन तर्पण करने का समय है। 'पूर्णाहुति' पढ़कर ऐसा लगा जैसे मैंने हमारे योद्धा पूर्वजों को अपने हिस्से का तर्पण कर दिया।__/\__करुणा सागर पण्डारायपुर
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